साहब कांशीराम और मनुवादी मीडिया रजनीतिक दल के उड़ गये थे होस मान्यवर साहेब के जन्मदिवस 15 मार्च 2010 को लखनऊ में लाखों लोगों की विशाल जनसभा में बहनजी को कार्यकताओं द्वारा नोटों वाली एक माला पहनाई गई थी। सभी मापदंडों से यह हजार रुपए के नोटों वाली माला अभूतपूर्व तथा अद्भुत थी।
दिल्ली में संसद सत्र चल रहा था।
इस घटना से जैसे पूरे देश में भूचाल आ गया हो, मनु मिडिया, राजनैतिक दल बुद्धिपरजीवी सभी जैसे दिमागी संतुलन खो बैठे, जांच एजेंसीस भी कहने लगी जांच करेंगे। उस समय केंद्र में कांग्रेसी सरकार थी। देश भर में बसपा और ख़ासतौर पर बहनजी के खिलाफ नफ़रत और घृणा का माहौल तैयार करने का प्रयास किया गया।
सभी प्रतिक्रियाओं का लब्बोलुआब था इनकीइतनी हिम्मत। स्वाभाविक था मिडिया तथा राजनैतिक प्रतिद्वंदियों द्वारा फैलाए जा रहे उन्माद के खिलाफ बहनजी की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई ।
5 अक्टूबर को बाबा साहेब द्वारा स्थपित, दिल्ली के अम्बेडकर भवन में लगभग दस हज़ार लोगों द्वारा बाबा साहेब अम्बेडकर द्वारा स्थापित बुद्धिस्ट सोसाइटी आफ इंडिया के तत्वाधान में आयोजित दीक्षा समारोह के दौरान बाबासाहेब द्वारा दी गई 22 प्रतिज्ञाओं को
दोहराने के संदर्भ में कुछ जातीय धर्मांधों द्वारा फैलाए जा रहे दुष्प्रचार को उपरोक्त घटना में निहित रणनीति द्वारा ध्वस्त किया जा सकता है। जैसे ही कार्यक्रम में शामिल लोगों द्वारा पुनः 22 प्रतिज्ञाओं को ग्रहण करने की घोषणा होगी सभी जातिवादियों के मुंह में दही जम जायेगी।
लेकिन क्या ये लोग ऐसा कर पाएंगे, ख़ासतौर पर जातीवादी पार्टियों में भविष्य तलाश रहे राजनेताओं से क्या ऐसी उम्मीद की जा सकती है मुझे संदेह है? वैसे मुझे खुशी होगी अगर में अपने इस आंकलन में गलत साबित हो जाऊं।
बाबा साहेब द्वारा स्थपित विभिन्न संस्थाओं के सामने भी आज अस्तित्व,विश्वास और औचित्य का प्रश्न आ खड़ा हुआ है। इन संस्थाओं तथा संगठनों पर कांग्रेसी, बीजेपी, आप या अन्य जातिवादी पार्टियों का कब्जा अत्यंत खेद जनक है।
मान्यवर साहब कांशीराम के योगदान को कुछ शब्दों में बताना काफी मुश्किल है
मान्यवर साहब कांशीराम के योगदान को कुछ शब्दों में बताना काफी मुश्किल है। इसलिए हम पुरे वर्ष बताते रहते है। एक व्यक्ति उच्च अधिकारी है और एकाएक एक ग्रुप डी कर्मचारी जो की बाबा साहब अम्बेडकर के जन्मदिवस पर केवल छुट्टी मांग रहा था पर हुए शोषण से इतना व्यथित हो जाता है
की कौर्ट में उस कर्मचारी दिनाभाना के साथ केस लड़ने जाता है, तारीखों पर जाता है और कौर्ट के बाहर डी के खारपर्डे द्वारा दी गयी किताब “Annihilation of Cast” एक रात में दो तीन बार पढ़कर नौकरी से इस्तीफा दे देता है और आने वाले सालो में जीरो से शुरआत करके संघर्ष करते समय फ़टे बनियान तक पहनता है।
इसे वो ही समझ सकता है जिसे एहसास हो सकता है की वो नौकरी करके आरामदायक जिंदगी तो जी सकता है लेकिन जिस समाज से वो आता है वो मानव अधिकारो तक से दूर है।
क्या यह इतना आसान था की उच्च अधिकारी पद से एकाएक इस्तीफा देकर समाज के लिए संघर्ष किया जाए?
मान्यवर साहब कांशीराम न होते तो;
1.बाबा साहब केवल जनरल नॉलेज के एल प्रश्न की ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमेन कौन थे तक कोंग्रेस व् उसके पिछलग्गू महाराष्ट्र के संगठनो द्वारा सिमित करवा दिए जाते।
2.समाज अभी भी “मनोबल हीन” रहता