दलितों आदिवासियों और पिछड़ों का पदोन्नति के पदों में प्रतिनिधित्व होना चाहिए

पदोन्नति के पदों में प्रतिनिधित्व होना चाहिए

दलितों आदिवासियों और पिछड़ों का पदोन्नति के पदों में प्रतिनिधित्व होना चाहिए, ये बात वो लोग भी स्वीकार नहीं कर पाते जो स्वयं को लिबरल प्रोग्रेसिव आदि समझते हैं या इस रूप में जाने जाते हैं…असल में अपर कास्ट मानस भौतिक सांस्कृतिक कारणों के चलते मूलतः अलोकतांत्रिक और वर्चस्ववादी होता है

उत्तराखंड राज्य में स्थिति इसलिये भी अनोखी और ज़्यादा ख़तरनाक है कि ख़ुद सरकार अपने संवैधानिक दायित्वों को दरकिनार करते हुए पदोन्नति के पदों में वंचितों के प्रतिनिधित्व के ख़िलाफ सुप्रीम कोर्ट गयी

2012 में इस पर एक लम्बा लेख लिखा था…. जो जनज्वार, शिल्पकार टाइम्स मे प्रकाशित हुआ

वर्तमान में उत्तराखंड मे ये मुद्दा फ़िर सतह पर है

लेखों के प्रस्तावित आने वाले वाले संग्रह मे इस पर शुरुआत से वर्तमान तक एक विस्तृत ब्यौरे और विश्लेषण का लगभग 15000 शब्दों का लेख आयेगा.

सम्भवतः जनचौक के नियमित कार्यक्रम ‘उत्तराखंड में दलित संघर्ष की दास्तान’ में भी इस पर चर्चा होगी

वर्तमान घटनाक्रम पर राज्य के अनुसूचित जाति जनजाति के संगठनों द्वारा मुझे इस पर संक्षिप्त लेख लिखने को कहा गया

उन निर्देशों के क्रम मे वर्तमान घटनाक्रम पर एक संक्षिप्त लेख लिखा है.जो ‘वंचित स्वर’ साप्ताहिक में प्रकाशित है.. उनका आभार

ये मुद्दा विशेष रूप से उत्तराखंड में दिखाता है कि दलित और आदिवासी यहाँ कितने असहाय है उन्हें वर्चस्वशाली समाज और सरकार दोनों के साथ संघर्ष करना पड़ रहा है

लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी है और संघर्ष लगातार ज़ारी है

पढ़ें ‘वंचित स्वर ‘ 9अक्टूबर 2022 में आया यह लेख
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पदोन्नति के पदों में आरक्षण का सवाल उत्तराखंड में एक बार फिर से सतह पर

पदोन्नति के पदों में आरक्षण का सवाल उत्तराखंड में एक बार फिर से सतह पर

पदोन्नति के पदों में आरक्षण का सवाल उत्तराखंड में एक बार फिर से सतह पर

माननीय उच्च न्यायालय उत्तराखंड नैनीताल ने दिनांक 19 / 09/2022 को पदोन्नति में आरक्षण के मामले से जुडी हुई एक याचिका पर सुनवाई करते हुए उत्तराखंड सरकार को 6 हफ्तों के भीतर जवाब दाखिल करने को कहा है .साथ ही बेहद महत्वपूर्ण निर्देश देते हुए मुख्य न्यायाधीश विपिन संघी और न्यायाधीश आर. सी. खुल्बे की खंडपीठ ने सरकार से यह भी स्पष्ट करने को कहा है कि जस्टिस इरशाद हुसैन कमेटी की रिपोर्ट का क्या किया गया है ?

विचाराधीन वाद में उच्च न्यायालय के इन निर्देशों के कारण उत्तराखंड में विगत एक दशक से चर्चित पदोन्नति के पदों में आरक्षण के मामले में बहस और सरगर्मी को तेज़ हो गयी हैं .एक तरफ़ जहाँ अनुसूचित जाति व जनजाति के राजकीय कर्मी वर्तमान घटनाक्रम को एक ऐसे मामले में उम्मीद की किरण के रूप में देख रहे हैं जिसे वो उत्तराखंड सरकार के सालों से जारी भेदभाव पूर्ण रवैये के कारण अपने हाथ से जा चुका मान रहे थे वहीँ सामान्य वर्ग के कर्मी ,जो पूर्व में सरकार को दबाव में लेकर इस मामले में अपनी स्थायी मानी गई जीत का जश्न मना चुके हैं ताज़ा घटनाक्रम से असहज नज़र आ रहे हैं और उन्होंने भी इस मामले में अपनी सांगठनिक सक्रियता को तीव्र कर दिया है .

दरअसल उत्तराखंड राज्य के राजकीय कर्मियों के पंजीकृत संगठन ‘उत्तराखंड सचिवालय अनुसूचित जाति /अनुसूचित जनजाति कार्मिक बहुउद्देश्यीय मानव संसाधन विकास कल्याण समिति’ के द्वारा अपने अध्यक्ष वीरेंद्र पाल सिंह के माध्यम से उच्च न्यायालय उत्तराखंड नैनीताल में दिनाकं 1/9/2022 को एक याचिका दायर की गई जिसमे माननीय उच्चतम न्यायालय के द्वारा दिनांक 28/1/2022 को जनरैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण गुप्ता के वाद में पारित निर्देशों के क्रम में यह दावा किया गया है

कि उत्तराखंड सरकार के सम्मुख, राजकीय सेवाओं में अनुसूचित जाति और जनजाति का अल्प प्रतिनिधित्व दिखाने वाली अलग अलग समय समय में गठित कमेटियों और आयोगों की रिपोर्ट्स और संस्तुतियां होने के बावजूद सरकार द्वारा अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों का निर्वहन नहीं किया गया और आधारहीन मनमाने व त्रुटिपूर्ण ढंग से ,संवैधानिक रूप से प्रत्याभूत सामाजिक न्याय और इस तरह से संविधान के ही विपरीत आचरण करते हुए पदोन्नति के पदों में अनुसूचित जाति और जनजाति का प्रतिनिधित्व समाप्त कर दिया गया है .अब आगे के घटनाक्रम पर दोनों वर्ग के कार्मिकों की नजर बनी हुई है .दोनों ही सरकार की प्रतिक्रिया का इंतज़ार कर रहे हैं.

अब तक इस मामले में क्या हुआ है –

पदोन्नति के पदों में प्रतिनिधित्व का मामला 2006 से चर्चा में है जब ऍम नागराज के मामले में सप्रीम कोर्ट ने पदोन्नति में आरक्षण को संवैधानिक बताया लेकिन इसके लिए अनुसूचित जाति/जनजाति के वर्गों का पिछड़ापन,सेवाओं में इनका अपर्याप्त प्रतिनिधित्व प्रमाणित करने के लिए क्वान्टिफाएबल डाटा की ज़रूरत और सेवाओं में प्रशासनिक दक्षता अप्रभावित रहने की तीन शर्तें अनिवार्य कर दीं.

इन शर्तों को पूर्ण न करने के चलते एक के बाद एक कई राज्यों में सम्बन्धित उच्च न्यायालयों के आदेशों के चलते पदोन्नति के पदों में अनुसूचित जाति और जनजाति का प्रतिनिधित्व समाप्त होता चला गया .उत्तराखंड में भी उच्च न्यायालय द्वारा जुलाई 2011 में विनोद प्रकाश नौटियाल की याचिका में उत्तराखंड सरकार को अनुसूचित जाति और जनजाति का सेवाओं में अल्प प्रतिनिधित्व प्रमाणित करने के लिए डाटा इकट्ठा करने हेतु निर्देशित किया गया

जिसके क्रम में सितम्बर 2011 में सरकार द्वारा इंदु कुमार पाण्डेय की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति का गठन किया जिसने राज्य की सेवाओं में अनुसूचित जातियों और जनजातियों का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व दिखाने वाली अपनी रिपोर्ट 4/1/2012 को सरकार को सौंप दी साथ ही सेवाओं में दक्षता बनाये रखने के लिए कर्मचारी की वार्षिक चरित्र प्रविष्टि को आधार बनाने की बात कही. राज्य कैबिनेट ने 12/4/12 को उक्त रिपोर्ट पर विचार किया लेकिन अज्ञात कारणों से इसके आधार पर अनुसूचित जाति और जनजाति को सेवाओं में प्रतिनिधित्व देने का प्रावधान नही किया .

इसी बीच पहले उत्तर प्रदेश में फिर उत्तराखंड में भी उच्च न्यायालयों ने अनुसूचित जाति और जनजाति का पदोन्नति के पदों में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने वाली, उत्तर प्रदेश लोक सेवायें(अनुसूचित जाति ,अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण )अधिनियम की धारा 3(7) को असंवैधानिक घोषित किया क्योकि वो सम्बन्धित न्यायालयों द्वारा ऍम नागराज के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुकूल नहीं पाई गई .

यहाँ गौरतलब है उक्त विनोद प्रकाश नौटियाल के मामले में उच्च न्यायालय उत्तराखंड नैनीताल ने 10 /7 /12 के अपने आदेश में यह भी टिप्पणी की कि यदि सरकार चाहे तो कानून बनाकर पदोन्नति के पदों में आरक्षण का प्रावधान कर सकती है .

इस पर उत्तराखंड सरकार ने सितम्बर 2012 में अनुसूचित जाति और जनजाति को आरक्षण दिए बिना राज्य की सेवाओं में पदोन्नतियां करने का आदेश ज़ारी किया साथ ही अनुसूचित जाति और जनजातियों का सेवाओं में प्रतिनिधित्व के क्वान्टिफाएबल डाटा इकट्ठा करने के लिए रिटायर्ड जस्टिस इरशाद हुसैन का एक सदस्यीय आयोग गठित किया .यहाँ साफ़ था कि सरकार अनुसूचित जातियों और जनजातियों को पदोन्नति में प्रतिनिधित्व देने को अनिच्छुक थी

क्योकि यदि वो ऐसा करने के लिए गंभीर होती तो उक्त वाद के दौरान इस पक्ष में इंदु कुमार पाण्डेय समिति के हवाले से न्यायालय में तर्क भी दे सकती थी और इसी आधार पर पदोन्नति में आरक्षण का प्रावधान भी कर सकती थी .लेकिन राजनीतिक कारणों और उत्तराखंड राज्य की सामाजिक जनांकिकी के चलते सरकार ने इच्छाशक्ति नहीं दिखाई और अपर कास्ट के दबाव में भेदभावपूर्ण तरीके से अपने संवैधानिक दायित्वों के प्रतिकूल कार्य किया .

इरशाद हुसैन आयोग का कार्यकाल कई बार बढ़ाया गया अंततः 2016 में आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी .लेकिन न तो आज तक रिपोर्ट सार्वजनिक की गई न ही उस पर कोई कार्यवाई की गई .2018 मे सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर पदोन्नति में आरक्षण को संवैधानिक बताया जिसके क्रम में 2019 उत्तराखंड उच्च न्यायालय में पदोन्नति में आरक्षण का दावा करने वाली याचिकाएं ज्ञान चंद ,एस सी एस टी एम्पाईज फैडरेशन और मुकेश कुमार द्वारा योजित की गई .इन याचिकाओं में उच्च न्यायालय उत्तराखंड ने राज्य सरकार को अनुसूचित जाति और जनजाति को पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए निर्देशित किया .

उत्तराखंड सरकार ने एक बार फिर अनुसूचित जातियों और जनजातियों के संवैधानिक अधिकारों के विरुद्ध फैसला लेते हुए उच्च न्यायालय में पुनर्विचार याचिका दायर की जिसमे कोर्ट ने सरकार को चार माह में अनुसूचित जाति व जनजाति का प्रतिनिधित्व जांचने के लिए आंकड़े इकट्ठा करने और उसके आधार पर फैसला लेने का निर्देश दिया. पुनर्विचार याचिका में भी अनुसूचित जाति और जनजाति के पक्ष में फैसला आता देख सरकार फैसले के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट गई और इस तरह यह दुनिया के संवैधानिक लोकतंत्र के इतिहास का पहला मामला बन गया जब चुनी हुई सरकार संविधान के प्रावधानों ने समाहित सामाजिक न्याय और सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए नागरिक समूहों के प्रतिनिधित्व के विरुद्ध देश की सबसे बड़ी अदालत में पहुँच गयी .

मुकेश कुमार व अन्य बनाम उत्तराखंड राज्य व अन्य के इस असाधारण और अपनी तरह के अनोखे वाद में 7/2/20 को सरकार के पक्ष में और अनुसूचित जातियों व जनजातियों के विरुद्ध फैसला आया और सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि सरकार पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए बाध्य नही है और आरक्षण दिया जाना या न दिया जाना सरकार के सब्जेक्टिव विवेक के अंतर्गत आता है .और इस तरह उत्तराखंड राज्य में सरकार की इच्छा के अनुसार ही पदोन्नति में आरक्षण की समाप्ति का मार्ग पूरी तरह प्रशस्त हुआ और 18/3/2020 को सरकार ने आदेश पारित अनुसूचित जाति और जनजाति का पदोन्नति में आरक्षण समाप्त कर दिया.

लेकिन 28 /1 /22 को जनरैल सिंह के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फिर पदोन्नति में आरक्षण को वैध मानते हुए डाटा इकट्ठा करने सम्बन्धी दिशानिर्देश स्पष्ट किये गये जिसके क्रम में ‘सचिवालय समिति’ द्वारा उच्च न्यायालय में याचिका दायर की गयी है जिस पर छ हफ्तों में सरकार को जवाब देना है .

उत्तराखंड की स्थिति अलग क्यों है –

2006 के बाद से ही देश के कई राज्यों में पदोन्नति के पदों में आरक्षण समाप्त होता चला गया है और कई राज्यों, जिनमे राजस्थान कर्नाटक छतीसगढ़ आदि का नाम लिया जा सकता है ,ने संविधान के प्रावधानों और सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता दिखाते हुए स्वतंत्र आयोग गठित कर इकट्ठा किये गये आंकड़ों के आधार पर अपने राज्य में पदोन्नति में आरक्षण लागू करने का प्रयास किया है और कई मामले कोर्ट में भी लम्बित हुए .साथ ही केंद्र सरकार ने भी न्यायालय में आरक्षण के पक्ष में पैरवी की .

लेकिन उत्तराखंड राज्य ने पहले उच्च न्यायालय फिर उच्चतम न्यायालय में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के पदोन्नति में प्रतिनिधित्व के विरुद्ध पोजीशन ली .यह एक खतरनाक और असाधारण प्रवृति है जिसका राज्य ही नहीं बल्कि देश भर के अनुसूचित जाति जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों के संवैधानिक अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है .और इससे भी ज्यादा गंभीर बात यह है कि एक चुनी हुई सरकार की सामाजिक न्याय के संवैधानिक प्रावधानों के प्रति निष्ठा आजाद भारत के इतिहास में पहली बार सार्वजनिक और औपचारिक रूप से संदिग्ध साबित हो गयी है .ये संवैधानिक मूल्यों के क्षरण का अनूठा उदाहरण है जिसके दूरगामी और दीर्घकालिक प्रभाव होंगे.

ताज़ा घटनाक्रम से वंचितों को क्या उम्मीद करनी चाहिये –

‘सचिवालय समिति’ द्वारा हाल में दायर याचिका में पहली बार कोर्ट ने इरशाद हुसैन आयोग का नाम उल्लेख कर सरकार से इस पर की गयी कार्रवाई के बारे में सूचना चाही है .अब सरकार को इस पर लिए गये या न लिए गये फैसलों ,कदमों और कार्रवाइयों के बारे में अपना रुख स्पष्ट करना होगा .ये सरकार के लिए असहज करने वाली स्थिति हो सकती है .क्योकि जिस तरह आरक्षण देने के फैसले पर पहुंचने के लिए आंकड़े इकट्ठा करना ज़रूरी है उसी तर्क से आरक्षण ना देने के सरकार के फैसले का भी कोई तार्किक आधार होना चाहिये और तब तो यह आधार स्पष्ट होना और भी ज़रूरी है जब कि सरकार के पास एक नहीं बल्कि दो दो कमेटियों द्वारा जुटाए गये आंकड़े मौजूद हैं .

किसी भी कोर्ट ने आज तक पदोन्नति में आरक्षण को अवैध नही कहा है .कोर्ट्स ने केवल आंकड़े जुटाकर तर्कपूर्ण प्रक्रिया के तहत आरक्षण देने को कहा है .उत्तराखंड सरकार ने पहले से ज़ारी आरक्षण को आंकडो पर आधारित न होने के कारण आये कोर्ट के फैसले के चलते समाप्त करने में काफी तत्परता दिखाई है जबकि आंकड़े तो सरकार के पास मौजूद थे .एक प्रक्रिया के तहत जुटाई गयी सामग्री पर फैसला न लेकर सरकार ने अपर कास्ट के अनुचित दबाव में मनमाने तरीके से फैसला लिया .

अब कोर्ट के ताज़ा निर्देश के प्रकाश में सरकार द्वारा किया गया भेदभावपूर्ण व्यवहार छुप नहीं पायेगा और सरकार को न्यायालय में तर्कपूर्ण जवाब देना पड़ेगा .अगर सरकार तर्कपूर्ण व्यवहार करे जो कि एक ज़िम्मेदार सरकार को करना चाहिए तो उत्तराखंड राज्य में पदोन्नति के पदों में अनुसूचित जाति और जनजाति का प्रतिनिधित्व फिर से बहाल होने की सम्भावना है और यदि ऐसा हो पाया तो इससे न केवल वंचित तबकों के हित सुरक्षित होंगे बल्कि भारतीय संविधान के संस्थागत क्षरण को भी रोका जा सकेगा .

उत्तराखंड के वंचित तबकों के कार्मिकों को क्या करना चाहिए-

1- अपना सांगठनिक ढाचा मजबूत करें ,जो संगठन व्यक्ति समूह इस संघर्ष का कोर्ट और अन्य सार्वजनिक मंचों पर नेतृत्व कर रहे हैं उनके हाथ मजबूत करें ,उन्हें अकेला न छोड़ें वे पूरे समाज और संवैधानिक मूल्यों की लड़ाई लड़ रहे हैं याद रहे उच्च पदों में वंचित तबकों का प्रतिनिधित्व ना होने से नीति और कार्यान्वयन सम्बन्धी महत्वपूर्ण फैसलों पर हमारा दखल शून्य हो जाएगा और इसका स्पष्ट प्रभाव दिखाई भी देने लगा है .

2- इस संघर्ष को राज्यव्यापी नही बल्कि देशव्यापी बनाएं ध्यान रहे कि उत्तराखंड सरकार के अलावा किसी भी राज्य सरकार अथवा केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में आरक्षण के विरुद्ध पोजीशन नही ली है ,तार्किक बात यह है कि पदोन्नति में आरक्षण का मसला संविधान के प्रावधानों को लागू करवाने का मामला है जो सारे देश में सैद्धांतिक तौर पर एक जैसे लागू होते हैं .उत्तराखंड सरकार पूरे देश में अकेले सामाजिक न्याय और इस तरह भारतीय संविधान के खिलाफ खड़ी नही हो सकती .और ऐसा करने से उत्तराखंड सरकार को तब ही रोका जा सकेगा जब ये मामला देश व्यापी बनेगा .अन्यथा यहाँ सरकार बहुत आसानी से संविधान और सामाजिक न्याय विरोधी ताकतों के आगे झुक जायेगी

3- अनुसूचित जाति और जनजाति के राजकीय कर्मियों को चाहिए कि वो अपने समाज के ग़रीब पीड़ित शोषित लोगों और उनके गैर राजनीतिक संगठनों के दुःख दर्द में उनके साथ खड़े हों ,राज्य में वंचितों पर उत्पीडन के मामलों में लगातार वृद्धि हो रही है .राजकीय कर्मी जिस वंचित समाज से आते हैं और जिनका राजकीय सेवाओं में प्रतिनिधित्व जाहिर करते हैं उसके स्पष्ट शोषण से वे अप्रभावित नही रह सकते इस अप्रोच से ही पदोन्नति के पदों में प्रतिनिधित्व के मामले सहित बनके समस्त औचित्यपूर्ण मामले गिने चुने राजकीय कर्मियों से आगे जाकर वास्तव में पूरे वंचित समाज का मामला बन पाएंगे .

4- अनुसूचित जाति और जनजाति के कार्मिकों को अन्य पिछड़े वर्गों के लिए भी पदोन्नति में आरक्षण की मांग करनी चाहिए .देश भर में उच्च पदों में अन्य पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व न्यून है जो सामा जिक न्याय के सिद्धांत के प्रतिकूल है

अन्य भी कई बातें हैं जो मुझे कहनी है लेकिन शायद वो इस लेख के मूल विषय से बाहर चली जायेंगी .फिलहाल यही कहना है कि उत्तराखंड में पदोन्नति के पदों में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के प्रतिनिधित्व की लड़ाई एक बार फिर सतह पर है और वंचितों को समझना है और दुनिया को समझाना है कि ये लड़ाई केवल उनके अपने वर्ग की नहीं बल्कि महान भारतीय संविधान के मूल्यों को बचाने की लड़ाई है

एक हाशिया जब फैलने को जूझता है तो वो सारी दुनिया को अधिक विस्तृत उदार लोकतांत्रिक और समावेशी बनाता है …

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