बुनकरों की जिंदगी सवार रहे हैं औरंगाबाद के शत्रुघ्न:कोरोना के दौरान दिल्ली से लौटे थे, कालीन उद्योग की खोई पहचान वापस दिलाने की है जिद

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औरंगाबादएक घंटा पहले

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औरंगाबाद का एक शख्स कोरोना के दौरान एंबुलेंस से दिल्ली से अपने गांव पहुंचा। गांव पहुंचते ही सबसे पहले उसने रोजगार सृजन की दिशा में काम करना शुरू कर दिया। यह युवक नबीनगर प्रखंड के नावाडीह गांव के शत्रुघन कुमार सिंह (42) है। उन्होंने अपनी मेहनत और सरकार की एमएसएमई के तहत सूक्ष्म लघु उद्योग योजना को धरातल पर उतारकर कालीन उद्योग को बढ़ावा दिया।

बुनकरों को रोजगार दे रहे हैं शत्रुघ्न

बुनकरों को रोजगार दे रहे हैं शत्रुघ्न

इसके साथ ही और काम की तलाश में इधर-उधर भटक रहे बुनकरों को रोजगार देकर उनके जीवन को बदलने की कोशिश में जुट गए। शत्रुघ्न वर्ष 1998 से ही दिल्ली में रहकर एक निजी कंपनी में हैंडीक्राफ्ट का काम करते थे। कोरोना की भयावता ने उनपर काफी असर डाला। उन्होंने कालीन उद्योग को अपने गृह जिले में बढ़ावा देने की ठान ली। एक वर्ष के अथक परिश्रम के बाद उन्होंने इस उद्योग को धरातल पर उतारा और लुप्त हो रही ओबरा कालीन उद्योग को फिर से पहचान दिलाने में कामयाबी हासिल की।

विदेशों में भी थी औरंगाबाद के कालीन की डिमांड

विदेशों में भी थी औरंगाबाद के कालीन की डिमांड

आपको बता दे कि 70 के दशक में ओबरा का कालीन उद्योग अपने चरम पर था। यहां के बुनकरों के कालीन की डिमांड अमेरिका, भूटान, थाईलैंड, चीन और नेपाल तक थी। बुनकरों के बुने कालीन का जलवा ऐसा था कि यहां के कालीन राष्ट्रपति भवन की शोभा बढ़ाने थे। इसके कारण वर्ष 1972 में ओबरा के बुनकर मोहम्मद अली को राष्ट्रपति पुरस्कार से नवाजा गया। मगर वक्त के थपेड़ों और सरकार की उदासीनता ने यहां के कालीन उद्योग को धराशाई कर दिया। हालत यह हो गई कि वर्ष 1986 में स्थापित महफिल-ए-कालीन उद्योग अंतिम सांस गिनने लगा। वहीं अब शत्रुघ्न कुमार सिंह की मेहनत ने रंग दिखाया और इस उद्योग से लोग जुड़ने लगे। ओबरा के खराटी में उनके द्वारा स्थापित कालीन उद्योग के कारण पलायन करने वाले बुनकर अब धीरे-धीरे रोजगार प्राप्त करने लगे हैं। शत्रुघ्न सिंह ने औरंगाबाद के तमाम वैसे बुनकरों से अपील की है कि वह इधर-उधर ना भटके और अपने गांव की मिट्टी से जुड़कर कालीन उद्योग को पहचान दिलाने में अपनी अहम भूमिका निभाएं।

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