अगर मेरा जन्म फिर हो तो मैं चाहूँगा कि दुबारा कभी बंगाल में न हो. जानते हैं ये किसने कहा ? रबीन्द्रनाथ टैगोर ने. जी हाँ, आपने ठीक पढ़ा

रबीन्द्रनाथ टैगोर
रबीन्द्रनाथ टैगोर

अगर मेरा जन्म फिर हो तो मैं चाहूँगा कि दुबारा कभी बंगाल में न हो. जानते हैं ये किसने कहा ? रबीन्द्रनाथ टैगोर ने. जी हाँ, आपने ठीक पढ़ा. रबीन्द्रनाथ टैगोर ने ये बात कही थी. मगर ऐसा क्यों कहा इस विश्वप्रसिद्ध कवि ने ? क्योंकि जातिव्यवस्था के पीड़ित थे टैगोर ! रबीन्द्रनाथ टैगोर ब्राह्मणी जाति व्यवस्था में सबसे निम्न जाति की मानी जाने वाली चाण्डाल जाति, जो अब नामशूद्रा कहलाती है, से आते थे.

The Calcutta Municipal Gazette, Tagore Memorial Special Supplement, Saturday, September 3, 1941, editor Anal Home, p 90 इस सम्बंध में बहुत महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराती है. रबीन्द्रनाथ टैगोर का परिवार काफी समृद्ध था और उनके दादा द्वारकानाथ टैगोर कलकत्ता के काफी समृद्ध व्यवसायी थे. 1913 में रबीन्द्रनाथ टैगोर साहित्य का नोबेल पुरस्कार पाने वाले पहले भारतीय ही नहीं बल्कि पहले एशियाई भी बन चुके थे.

इन सबके बावजूद रबीन्द्रनाथ टैगोर ने 1925 में पूर्वी बंगाल में आयोजित नामशूद्र जाति के सम्मेलन में शिरकत किया. लेकिन भारत के ब्राह्मणवादी लेखकों ने षड्यंत्र करके धूर्ततापूर्ण तरीक़े से रबीन्द्रनाथ टैगोर की वास्तविक जाति छुपा लिया.शायद आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि कलकत्ता के इस विद्वान को पुरी के जगन्नाथ मंदिर में घुसने से सिर्फ़ इसलिए प्रतिबंधित कर दिया गया था क्योंकि वह तथाकथित अछूत समझे जाने वाली नामशूद्र जाति के थे.

रबीन्द्रनाथ टैगोर

जुलाहे कबीर और धानुक(कुर्मी) जाति के फणीश्वरनाथ रेणु की तरह ही प्रसिद्ध हो जाने पर जाति चोरी के शिकार हुए नामशूद्र रबीन्द्रनाथ टैगोर भी

जुलाहे कबीर और धानुक(कुर्मी) जाति के फणीश्वरनाथ रेणु की तरह ही प्रसिद्ध हो जाने पर जाति चोरी के शिकार हुए नामशूद्र रबीन्द्रनाथ टैगोर भी.रवींद्रनाथ टैगोर या ठाकुर, का पुश्तैनी सरनेम क्या था….ठाकुर तो उन लोगों को तब कहा जाने लगा था जब वो कोलकाता के गोविंदपुर में रहने लगे थे..तो निचले पायदान की जातियाँ उन्हें आदर से ठाकुर कहने लगी थीं…जो बाद में उनका कुलनाम हो गया…और अंग्रेजो ने उसे टैगोर कर दिया।

टैगोर के एक पूर्वज पंचानन थे..उन्हें ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ कारोबार करने का मौका मिल गया…तो उन्होंने पैसा इतना ज्यादा कमा लिया कि उन पर आम लोगों की तरह जाति बंधन नहीं झेलना पड़ा। इसके अलावा, अंग्रेजी, पैसा और उच्च जाति में से कोई दो चीज़ें सामाजिक मान्यता और प्रतिष्ठा के लिए जरूरी होती हैं..तो इनके पास दो तो हो गई थीं..इसलिए इनकी गाड़ी चल निकली।

हालांकि, गाहे-बगाहे और मंदिरों में तो उनके साथ भेदभाव होना ही थाब्राह्मण वर्ग अपनी आदत के अनुसार, धनी और संपन्न परिवारों में बेटियों की शादी कर देते हैं, और जाति की चर्चा नहीं करते…और आम भ्रम बने रहने देना चाहते हैं कि ब्राह्मण के यहां शादी हुई तो वो भी ब्राह्मण ही होंगे। इस तरह से उस जाति के संपन्न परिवार का ब्राह्मणीकरण भी कर लेते हैं..और संपन्न परिवार से रिश्ता भी जुड़ जाता है…।

इसी तरह से टैगोर के परिवार में भी ब्राह्मणों ने रिश्ते किए….इसके बाद तो सब ब्राह्मणों का फर्ज ही बनता था कि टैगोर को ब्राह्मण ही सिद्ध करें..उनके पूर्व ब्राह्मण (पीरल्ली) होने के कारण ये कुछ आसान भी हो गया…क्योंकि पूर्व ब्राह्मण से केवल पूर्व ही तो हटाना था..साहित्य का नोबेल पुरस्कार पाने के बाद टैगोर देश के सर्वाधिक चर्चित और सम्मानित रचनाकार हो गये थे लेकिन यह तथ्य कभी सामने नहीं आया था कि वे दलित जातीय प्रतिभा थे।

पुरी के जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश करने से रोका गया था उसे ही नोबेल पुरस्कार के बाद लोग ब्राह्मण घोषित करने लग गये।

कुछेक जीवनीकारों ने तो बाकायदा उन्हें ब्राह्मण ही लिखा है। यह देखना दिलचस्प है कि जिस प्रतिभा को दलित होने के कारण पुरी के जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश करने से रोका गया था उसे ही नोबेल पुरस्कार के बाद लोग ब्राह्मण घोषित करने लग गये। चूंकि बंगाल में उनकी जाति ‘पीरल्ली’ कही जाती थी। इसलिए ‘पीरल्ली’ को भी ब्राह्मण या पूर्व ब्राह्मण माना जाने लगा गोकि ‘पीरल्ली जाति घृणा लगातार पाती रही रवीन्द्रनाथ की जाति पीरल्ली थी जो बंगाल में दलित जाति रही है।

रवीन्द्रनाथ की जाति पीरल्ली थी जो बंगाल में दलित जाति रही है।

बंगाल में दलित जाति की हैसियत काफी बड़ी थी। ‘मनुस्मृति’ के अनुसार दलित जाति शूद्र पिता और ब्राह्मण मां की संतान से विकसित हुई जाति है (मनु 10-16) लेकिन इसी पीरल्ली जाति के हरिचंद ठाकुर ने 19 वीं सदी में इस जातीय अवमानना के विरुद्ध बड़ा आन्दोलन छेड़ा था। इसी पीरल्ली जाति के लोगों ने जातीय अपमान और उत्पीड़न से त्रस्त हो कर लाखों की तादाद में धर्म परिवर्तन कर मुसलमान बन गये थे।

अक्टूबर 1998 में प्रकाशित डॉ. तनुजा मजूमदार के एक लेख में खुद रविबाबू ने पूर्वजों द्वारा धर्म परिवर्तन करने के बाद इस्लाम स्वीकार करने का विस्तार पूर्वक विवरण दिया था। उन्हीं में एक कामदेव थे,जो बाद में कमालुद्दीन खां चौधरी हो गये थे जिनके वंशज कोलकाता के पार्क सर्कस में रहते हैं। टैगोर के धर्मान्तरित पूर्वजों में से ही खां के परिवार की एक महिला प्रो. किश्वरजहां से अपनी मुलाकात का जिक्र डॉ. मजूमदार ने किया है।

लेखिका के अनुसार इसी ठाकुर परिवार के पूर्वजों द्वारा इस्लाम धर्म कुबूल किये जाने की घटना का जिक्र ‘द्वारकानाथ ठाकुर जीवनी’ ही नहीं ‘रवीन्द्र जीवनी’ में भी मिलता है। रविबाबू के उक्त पूर्वजों ने 15वीं सदी में धर्म परिवर्तन किया था। तब बंगाल में इसी जातिवादी अपमान के चलते सामूहिक धर्मपरिवर्तन हुए थे।

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