धर्म बनाम आधुनिकता का वैचारिक संघर्ष

धर्म बनाम आधुनिकता का वैचारिक संघर्ष
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दुनिया का असली वैचारिक संघर्ष धर्म बनाम आधुनिकता का है। जिसे हम यूरोपीय नवजागरण कहते हैं उससे इसकी शुरुआत मानी जाती है। यह महज संयोग नहीं है कि जिस वक्त यूरोप में नवजागरण चल रहा था लगभग उसी समय बनारस में बैठे कबीर मुल्ला-पण्डा के पाखण्ड की कलई खोल रहे थे। बुद्ध तो कबीर से भी दो हजार साल पहले यह कर चुके थे।

नवजागरण की एक पँक्ति की परिभाषा यह है कि उससे पहले यूरोपीय दुनिया के केंद्र में ईश्वर था। नवजागरण ने उसके केंद्र में मनुष्य को स्थापित किया। ईश्वर खुद तो कभी दुनिया में आकर कोई गवाही नहीं दे गया लेकिन उसके नाम पर चलायी जा रही दुकानों (जिन्हें हम धर्म कहते हैं) ने दुनिया भर के कुकर्म ईश्वर के नाम पर किये। ईश्वर ने कभी दुनिया में आकर यह नहीं कहा कि ये हमारे मिडिलमैन रहेंगे लेकिन कई सज्जनों ने खुद को ईश्वर का बिचौलिया या कुछ ने तो खुद को ईश्वर ही घोषित कर दिया।

ऐसा नहीं है कि यह काम आज नहीं होता। दुनिया के किसी भी हिस्से के किसी भी कालखण्ड के किसी भी 100 साल का इतिहास उठा कर देख लीजिए आपको एक ऐसा आदमी मिल जाएगा जो खुद को ईश्वर या ईश्वर का बिचौलिया बताता है। आदिवासियों तक में ऐसे ओझा मिलते हैं।

ईश्वर है या नहीं यह तो बहस कभी निर्णायक बिन्दु पर नहीं पहुँचेगी लेकिन यह साफ है कि किसी एक धर्म या उसके ध्वजाधारी के पास ईश्वर का ठेका-पट्टा नहीं है। नवजागरण ने इतना तय कर दिया कि दुनिया के ज्यादातर संस्थागत धर्मों में बहुत सा अधकचरापन या पिछड़ापन है। धार्मिकों किताबों में दिये झूठ बेनकाब किये जाते रहे। वोल्टेयर जैसे लोगों की ख्याति इसी बात के लिए थी कि उन्होंने चर्च और पादरी के पाखण्ड को तार-तार किया। हालाँकि वो कबीर के बाद पैदा हुआ था।

विडम्बना यह है कि ईश्वर की आस्था मनुष्य के लिए इतनी बुनियादी चीज है कि धार्मिक धूर्तों का शिकार बनने का बीज उसके अन्दर हरदम मौजूद रहता है। इस बुनियादी प्रवृत्ति के चलते ही वह जरा सा असावधान या असंतुलित होते ही आधुनिकता के सारे लाभ और ज्ञान हासिल करने के बाद भी धार्मिक पाखण्डियों के चरणामृत पीने लगता है।

सोशलमीडिया पर ही देखा है कि ब्रिलिएंट लोग, जो आईआईटी-आईआईएम जैसे संस्थानों से पढ़े हैं किसी संदिग्ध स्थिति में दसवीं-बारहवीं पास उन्मादी के फॉलोवर हैं क्योंकि वो उनकी धार्मिकता का शोषण करना जानता है। यही चीज दूसरे के धर्म में होती है तो हमें तुरन्त समझ में आ जाती है। अच्छे इदारों से पढ़े लिखे नौजवान इस्लामी जिहादी बन रहे हैं यह हमें आसानी से दिख जाता है। मदरसे में कुरान रटने वाला आदमी डॉक्टर-इंजीनियर-प्रोफेसर-पत्रकार को अपनी मर्जी पर चलाने लगता है क्योंकि वह उनकी धार्मिक पहचान का शोषण करना जानता है।

आप भले ही भौतिकी, रसायन, दर्शन, गणित, इतिहास इत्यादि के ज्ञाता हों कोई मूढ़ संस्कृत के चार श्लोक बोलकर आपको अपने कंट्रोल में ले सकता है। आप कठपुतली की तरह उसके इशारे पर नाचने लगते हैं। गीता या वेद में ऐसा कुछ नहीं लिखा है जिसके बिना मनुष्य सुखी जीवन न जी सके। सच यही है कि करोड़ों भारतवासी इनसे परिचित हुए बिना ही दुनिया से गुजर जाते हैं। अरब मुल्कों के बाहर कुरान की अरबी समझने वाल दो प्रतिशत भी शायद ही हों। कुरान के तर्जुमों पर हजार साल से बहस जारी है तो सोचिए कि जिन लोगों को ढंग से हिन्दी तक नहीं आते वो क्या ही कुरान समझते होंगे और वो कौन सा इस्लाम जानते होंगे। वो वैसे ही अरबी आयतें याद कर लेते हैं जिस तरह हम में से बहुत से लोग संस्कृत जाने बगैर कई श्लोक याद कर लेते हैं।

संस्कृत में एक गनीमत यह है कि हिन्दी या अन्य कई भाषाएँ उससे सम्बन्धित हैं तो हम कई शब्दों से परिचित होते हैं। अरब मुल्कों के बाहर अरबी किसी की जबान नहीं न उन जबानों का अरबी से कोई सीधा नाता है तो आप सोचें कि उन जबानों के लोगों के लिए कुरान का क्या मतलब हुआ? हमारे आसपास जितने भी इलीट मुसलमान मोटी पगार लेकर सोशलमीडिया पर धर्म की ध्वजा फहरा रहे हैं उनका सारा अधकचरा ज्ञान अंग्रेजी अनुवाद से आता है। कल ही देखा कि फैजान मुस्तफा जैसा कानुनविद तालिबान को सच्चा इस्लाम पढ़ा रहा था। दुर्भाग्य है कि फैजान साहब यह स्टैण्ड नहीं ले सके कि कुरान या हदीस की जो बात आधुनिकता की मेयार पर खरी नहीं उतरती उसे हम नहीं स्वीकार करेंगे।

विडम्बना देखिए जिन लोगों ने अरबी मदरसे में सालों साल कुरान-हदीस पढ़ी है, शरिया कानून लाने के लिए बन्दूक उठाकर जान की बाजी लगा रहे हैं उन्हें एक अंग्रेजीदाँ सूटेड-बूटेड लॉ प्रोफेसर बताना चाह रहा है कि ‘असल’ इस्लाम क्या है? आम इंसान आप वाले असल को असल मानेगा या उनके?

फैजान मुस्तफा को बाबासाहब आम्बेडकर से सीखना चाहिए। भारत में मनुस्मृति की कभी वो जगह नहीं रही जो ईसाइयों के लिए बाइबिल की थी और मुसलमानों के लिए कुरान की। मनुस्मृति को हिन्दुओं के धार्मिक आचार का आधार ईस्ट इण्डिया कम्पनी के ईसाई जजों-अफसरों ने बनाया क्योंकि उनकी जिद्दी मूढ़ता में कौई कौम बगैर एक किताब के चल ही नहीं सकती। उन्होंने यहूदी, ईसाई, मुसलमान और पारिसयों को ही देखा था। उन्हें नहीं पता था कि भारत एक किताब का नहीं बल्कि अनेक किताबों का देश है। फिर भी मनुस्मृति का बाबासाहब से लेकर हम जैसों तक आज तक सीधी आलोचना करते हैं कि यह किताब निंदनीय और त्याज्य है। मैंने ही मनुस्मृति पर एक पोस्ट लिखी तो कई हिन्दू कट्टरपंथी आहत हो गये। अफसोस था कि उनको अपना ही इतिहास नहीं पता। वो मनुस्मृति को सीने से चिपकाना चाहते हैं लेकिन ऐसे लोगों को आहत किये बिना तो धार्मिक कूपमण्डूकता का सामना नहीं किया जा सकता। कबीर ने जो काम आज से सात सौ साल पहले किया वो हम आज भी न कर सकें तो हम किस बात के बौद्धिक या प्रबुद्ध हुए।

सरल शब्दों में कहें तो ईश्वर को कुरान, बाइबिल और गीता वगैरह के कैद से आजाद कराने की जरूरत है। इन लोगों ने भगवान पर कब्जा कर लिया है और उसका डर दिखाकर इंसान को कंट्रोल करते रहते हैं। ऐसा नहीं है कि यह कोई नई बात है। मध्यकाल का सूफी और भक्ति आन्दोलन दरअसल सभी धर्मग्रन्थों के खिलाफ बगावत का आन्दोलन है। सूफियों-भक्तों ने मुल्लाओं और पण्डों से सीधा सवाल किया कि वेद-कुरान में क्या लिखा है यह बताना छोड़ो, तुम हमें ये बताओ कि तुम्हारा खुद का आध्यात्मिक अनुभव क्या है? उसके पहले बुद्ध ने भी बौद्धिक ज्ञान के बरक्स आध्यात्मिक अनुभव को अपने धर्म का आधार बनाया था।

अगर आप सचमुच साम्प्रदायिकता या प्रतिगामिता से संघर्ष करना चाहते हैं तो धार्मिक ग्रन्थों की गुलामी बन्द करनी होगी। आध्यात्मिक अनुभवों का समाजशास्त्र-राजनीतिशास्त्र-अर्थशास्त्र-नागरिक शास्त्र-विधि शास्त्र से कोई वास्ता नहीं है। धर्मग्रन्थों में जो आध्यात्मिकता से जुड़ी बातें हैं उनके निकाल कर एक जगह रख लीजिए और अन्य विषयों पर जो हजार या दो हजार साल पुरानी सोच है उसे निकाल बाहर कीजिए। इसी में मानवता का कल्याण है।

© रंगनाथ सिंह
#vss

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