छत्रपति शाहूजी महाराज : जन्मदिन 26 जून (26.6.1878-6.5.1922)

छत्रपति शाहूजी महाराज : जन्मदिन 26 जून
(26.6.1878-6.5.1922)

“शिक्षा से ही हमारा उद्धार संभव है, ऐसी मेरी मान्यता है।”-छत्रपति शाहूजी महाराज

सभी ज्ञात-अज्ञात महामाताओं एवं महापुरुषों को नमन, जिन्होंने विषमताभरी अमानवीय सामाजिक व्यवस्था के बजाय समतापरक मानवतावादी सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करने के लिए कम, ज्यादा या अथक प्रयास/बलिदान किया।

बाबा साहब के शब्दों में–“धन्य हैं वे लोग जो अनुभव करते हैं कि जिन लोगों में हमारा जन्म हुआ है, उनका उद्धार करना हमारा कर्तव्य है, धन्य हैं वे लोग जो गुलामी का खात्मा करने के लिए न्यौछावर रहते हैं और धन्य हैं वे लोग जो सुख-दु:ख, मान-सम्मान, आँधी-तूफान, कष्ट और कठिनाइयों की परवाह किए बिना तब तक संघर्ष करते रहेंगे जब तक कि बहुजनों को उनके मानवीय जन्मसिद्ध अधिकार न मिल जाए।”

भारतीय इतिहास को जब हम तीन भागों प्राचीन, मध्य, आधुनिक काल में बांटते हैं तो आधुनिक काल में समतापरक मानवीय सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करने वाला सबसे देदीप्यमान तारा हम ‘जोतिबा फुले’ को पाते हैं जिनके उल्लेखनीय कार्यों के कारण हम उन्हें ‘राष्ट्ररत्न’ कहते हैं। इन्हीं के कार्यों को डॉ. अंबेडकर ने आगे बढ़ाया, जिन्हें हमने इस मिशन को अंतर्राष्ट्रीय रूप देने के कारण ‘विश्वरत्न’ की उपाधि दी है।

इन दोनों महापुरुषो की समता, ममता, न्याय, स्वतंत्रता पर आधारित विचारधारा को हमने फुले-अंबेडकरी विचारधारा का नाम दिया है और हम तो कहते हैं कि भारत ही नहीं विश्व की जटिल एवं गंभीर होती जा रही समस्याओं का निदान संभव है तो वह फुले-अंबेडकरी विचारधारा में है। इसलिए इस विचारधारा का अपनाया जाना अपरिहार्य होता जा रहा है।
राष्ट्ररत्न जोतिबा फुले के मरणोपरांत जब तक विश्वरत्न बाबा साहब सामाजिक कार्यों के लिए परिपक्व हुए तब तक के गेप (खाली स्थान) को दो व्यक्तियों ने भरा। शिक्षा माता सावित्रीबाई (भारत की प्रथम प्रशिक्षित शिक्षिका ) ने 1891 से 1897 तक इस कारवाँ को चलाया। इसके बाद के गेप को सामाजिक जनतंत्र के आधारस्तंभ छत्रपति राजर्षी शाहूजी महाराज ने भरा और यह कारवाँ विश्वरत्न डॉ.अंबेडकर को सौंपा।

शाहूजी का जन्म माननीय नारायण दिनकर राव घाटेकर (अप्पा साहब घाटके) के यहाँ कोल्हापुर में हुआ। ब्राह्मणी/वैदिक/वर्ण/हिंदू धार्मिक व्यवस्था में इनकी कुर्मी जाति शुद्र वर्ण (ओबीसी) में आती है। शाहूजी का कार्यकाल 1892 से 1922 तक रहा। जो मूलनिवासी बहुजन समाज के उत्थान का स्वर्णिम काल रहा। कुछ उल्लेखनीय कार्य इस प्रकार से हैं-

(01)1901 में कोल्हापुर स्टेट की जनगणना कराकर अछूतों की दयनीय दशा को सार्वजनिक कराया।
(02) मंत्री पद एवं नौकरियों में पिछड़ा वर्ग की भागीदारी न के बराबर थी, जिसे आरक्षण कानून के माध्यम से 50% कराया और कड़ाई से लागू करवाया।
(03) नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान
(04) अस्पृश्यता निवारण कानून एवं व्यवहारिक कार्य
(05) घोषित अपराधिक जातियों की प्रतिदिन पुलिस थानों में हाजिरी देने की प्रथा को बंद कराया
(06) 1920 में बंधुआ मजदूरी की समाप्ति का कानून
(07) 1900-1905 तक वेदोक्त प्रकरण में धार्मिक क्षेत्र में ब्राह्मणों की वर्चस्वता को चुनौती दी।
(08) सत्यशोधक समाज (1897 से) के अध्ययन से राष्ट्ररत्न जोतिबा फुले के इस निष्कर्ष तक पहुंचे की जाति व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था मानव निर्मित है व पिछड़े वर्ग को अपना अलग संगठन बनाना चाहिए।
(09) मजदूर, किसानों के हित कार्य जैसे ग्राम अधिकारी पिछड़े वर्ग से चुने गए, सहकारी समिति गठन आदि
(10) हिंदू विधि संहिताकरण से अंतर्जातीय व अंतरवर्ण विवाह को अनुमति, विधवा विवाह कानून 1917, महिला दूर्व्यवहार समाप्त करने संबंधी कानून 1919, जगतीन व देवदासी प्रथा प्रतिबंधित कानून 1920, समान दंड प्रक्रिया संहिता 1909 से लागू की।

जोतिबा फुले व डॉ.अंबेडकर के बीच के गैप को सावित्रीबाई व शाहूजी महाराज ने बखूबी भरा। पर अफसोस! डॉ.अंबेडकर के मरणोपरांत से बामसेफ के अस्तित्व में आने तक के गेप को किसी ने भरा नहीं, अन्यथा आज सफलता शायद हमारे हाथों में होती।

आज हम देश में चारों तरफ देखते हैं कि विकास की बातें हो रही है परंतु वास्तविकता क्या है? इस पर थोड़ा विचार करते हैं। माननीय रामस्वरूप वर्मा (संस्थापक अर्जक संघ) के अनुसार विश्व में चार प्रकार के राष्ट्र है।

(1) सुदृढ़ राष्ट्र–जिनके पास इतनी रक्षा, खाद्यान, तकनीकी संसाधन है कि अपनी जरूरतों के पश्चात् वह दूसरों की सहायता भी कर सकते हैं, सुदृढ़ राष्ट्र कहलाते हैं। इस पर अमेरिका खरा उतरता है।
(2) विकसित राष्ट्र–जिनके पास रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार की समस्या लगभग ना के बराबर है। विकसित राष्ट्र कहलाते हैं जैसे जापान।
(3) विकासशील राष्ट्र–जो राष्ट्र अपनी साख बनाए रखते हैं।
(4) पतनशील राष्ट्र–इसके तीन पैरामीटर्स हैं अय्यासी, आलस्य, असत्य।
पहला है अय्यासी अर्थात मूलभूत आवश्यकताओं कृषि, सिंचाई, शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवार नियोजन पर व्यय का प्रतिशत घटाते जाना व अय्याशी की वस्तुओं जैसे ए.सी., फ्रिज, कार, टी.वी., का बढ़ता जा रहा है। रेलवे में दूसरे दर्जे की सीटों में नाम मात्र की वृद्धि जबकि प्रथम श्रेणी व ए.सी. सीटों में अपार वृद्धि, गरीबों के कपड़े की बजाय अमीरों के टेरीलीन का उत्पादन बढ़ाना, जीवन के लिए अत्यावश्यक राशन की सरकारी दुकान माह में कुछ ही दिन व जीवन के लिए अभिशाप शराब की सरकारी दुकान रोज खुलती है।
यह आर्थिक, सामाजिक व राजनैतिक विषमता देश को विघटन की ओर ले जा रही है क्योंकि समता से संगठन व विषमता से यह विघटन होता है।
दूसरा है आलस्य समय पर काम ना करना। कार्यालय व सभाओं में समय पर न पहुंचना। सिंचाई योजनाओं में लेटलतीफी। केंद्रीय उद्योग लाभ के बजाय घाटा दे रहे हैं। ध्यान रहे आलस्य सतर्कता विरोधी है।
तीसरा है असत्यता कहा जाता है कि छुआछूत मिट रही है फिर भी ऐसे कुएं दुर्लभ हैं, जहां उच्चवर्ण व अछूत एक साथ पानी भरते हों, मंदिरों में अछूतों का प्रवेश, घोड़ी पर अछूत दूल्हे का बैठना, आज भी खबर बनते हैं। राष्ट्रभाषा पर विवाद। जनतंत्र के चार स्तंभों से पिछड़ों को दूर रखने का प्रयास। गुणवत्तापरक नि:शुल्क, अनिवार्य शिक्षा लागू करने में लापरवाही जबकि उच्च वर्गों के लिए महंगी शिक्षा की व्यवस्था। याद रखें अभाव पूर्ण क्रय ईच्छा भ्रष्टाचार की जननी है अर्थात किसी की अय्याशी की वस्तुओं को खरीदने की इच्छा होना और धन का अभाव होना भ्रष्टाचार को जन्म देता है। “यथाहि कुरुते राजा प्रजास्तदनुवर्तते” के अनुसार जैसा शासक करते हैं वैसा ही प्रजा करती है। आलस्य, असत्यता,अय्यासी ने देश में घर कर लिया है। मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की ।

अब आप खुद तय कर सकते हैं कि भारत किस प्रकार के राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है।

वंचितों को थोड़ा बहुत मिला, उसे छीनने के लिए नए औजार बनाए जा रहे हैं जैसे उदारीकरण, वैश्वीकरण, निजीकरण, औद्योगिकरण, पूँजीवाद, सुरक्षित औद्योगिक क्षेत्र, वंचितों की भूमि पर औद्योगीकरण के नाम पर कब्जा, अपर्याप्त मुआवजा, पुनर्वास में लापरवाही, परंपरागत उद्योगों को संरक्षण न देना, प्रतिनिधित्व व्यवस्था को समाप्त करने हेतु सरकारी विभागों में घाटा दिखाकर निजीकरण करना आदि।

दूसरी तरफ जातिवाद, अंधविश्वास, भ्रम, भय, चमत्कार, पुनर्जन्म आदि सामाजिक बुराइयों के चंगुल में मूलनिवासी बहुजन समाज को फंसा रखकर उसका शोषण करना अनवरत जारी है। वास्तव में स्थिति भयंकर है।

फुले-आंबेडकरी विचारधारा पर आधारित संगठन ही वास्तव में हमारी समस्याओं का हल है।

संदर्भ
मूलनिवासी टाइम्स हिंदी पाक्षिक (16-31.7.2016)

https://www.facebook.com/1703045756652745/posts/1757344174556236/

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