ndtv.in पर प्रिय दर्शन की एक टिप्पणी। ताकि तिरंगे की गरिमा बची रहे — सरकार की चली तो आज़ादी के 75 साल के उपलक्ष्य में बीस करोड़ घरों में तिरंगा फहराया जाएगा। तिरंगा मुझे भी प्रिय है। बचपन में जिन प्रतीकों ने मुझे भारत के होने का मतलब समझाया, उनमें तिरंगा, उसका अशोक चक्र और गुरुदेव का लिखा राष्ट्रगान है। जो गीत बिना किसी तैयारी के गा सकता हूं, वह राष्ट्रगान ही है। जो नक्शा बिना देखे मोटे तौर पर बना सकता हूं वह भारत का ही है। जिन चित्रों को बड़ी आसानी से बना सकता हूं, चूंकि बचपन में सीखा है, उनमें लहराता हुआ तिरंगा भी है। इसलिए तिरंगा फहराने पर किसी आपत्ति की बात मैं सोच नहीं सकता।
लेकिन इस देश में कौन लोग थे जिन्हें तिरंगा मंज़ूर नहीं था और जिनके संगठन ने बरसों तक अपने मुख्यालय में तिरंगे को फहराने से इनकार किया? आज़ादी के पचास साल तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने मुख्यालय में तिरंगा नहीं फहराया। साल 2002 से उसने ये सिलसिला शुरू किया, जब उसे समझ में आया कि दिल्ली में उसकी विचारधारा की सरकार बन चुकी है और उसका तिरंगा न फहराना सरकार की लोकप्रियता को खतरे में डाल सकता है। संघ समर्थक बताते हैं कि 2002 में तिरंगे को लेकर बदले नियम के बाद ही आरएसएस ने झंडा फहराया, क्योंकि उसके पहले हर किसी को इसकी इजाज़त नहीं थी। जबकि सच यह है कि स्वाधीनता दिवस, गणतंत्र दिवस और राष्ट्रीय समारोह के दूसरे मौकों पर हर किसी को यह झंडा फहराने की छूट थी। देश भर के स्कूलों, कॉलेजों में, दफ़्तरों में, दूसरे संगठनों में ऐसे मौक़ों पर झंडे फहराए जाते रहे, लेकिन आरएसएस इससे दूर रहा।
दरअसल आरएसएस को तिरंगा नहीं भगवा झंडा चाहिए था। यह बात इतिहास में दर्ज है कि जब गांधी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लगाया गया तो उसे हटाने से पहले सरदार पटेल ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सामने जो शर्तें रखी थीं, उनमें तिरंगे को स्वीकार करना भी शामिल था। लेकिन तिरंगे की जगह भगवा झंडे को फहराना अब भी बहुत सारे बीजेपी और आरएसएस नेताओं का ख़्वाब है। हाल ही में कर्नाटक में बीजेपी सरकार में मंत्री और उपमुख्यमंत्री तक रहे केएस ईश्वरप्पा ने कहा भी कि एक दिन ऐसा आएगा जब लाल क़िले पर तिरंगा नहीं, भगवा झंडा फहराएगा। ईश्वरप्पा पर किसी ने कोई कार्रवाई की हो, इसकी जानकारी इन पंक्तियों के लेखक को नहीं है।
लेकिन यह टिप्पणी यह साबित करने के लिए नहीं लिखी जा रही कि किसे तिरंगे से प्यार है और किसे नहीं, बस यह याद दिलाने के लिए लिखी जा रही है कि तिरंगे से प्यार का मतलब कुछ मूल्यों से प्यार है जिनकी वजह से तिरंगा बना और कायम है। आज़ादी की लड़ाई के दौरान जिस बहुसांस्कृतिक समझ ने इस देश की राष्ट्रीयता का निर्माण किया, उसी ने राष्ट्रगान भी चुना, उसी ने तिरंगा भी चुना, उसी ने दूसरे प्रतीक भी बनाए। सारे जहां से अच्छे जिस हिंदुस्तान पर हम गर्व कर पाते हैं, वह इसी विरासत का नतीजा है।
लेकिन जिस दौर में बीस करोड़ घरों में तिरंगा फहराने की बात हो रही है, उस दौर में इस देश के चरित्र को जैसे बदला जा रहा है। पहले लोग चोरी-छुपे यह कहते थे कि यह देश सिर्फ़ हिंदुओं का है, अब खुल कर यह बात कही जा रही है और इस बहुसंख्यकवादी उभार को सत्ता प्रतिष्ठान का परोक्ष समर्थन और सहयोग हासिल है। इसीलिए इस दौर में बीजेपी का एक मंत्री यह हिम्मत कर पाता है कि वह लाल क़िले पर तिरंगे की जगह भगवा झंडे का ख़्वाब देखे।
वैसे यह सच है कि तिरंगे का अपमान सबने किया है। इस अपमान का मतलब यह नहीं है कि किसी ने उससे जूते साफ़ किए, या किसी ने उसे जला दिया या फिर किसी ने उसे उल्टा फहरा दिया। तिरंगे एक कपड़ा नहीं है, वह एक प्रतीक है जो ऐसे अपमानों से परे है। जो लोग जान-बूझ कर या अनजाने में या लापरवाही में तिरंगे का मान नहीं रख पाए, दरअसल उन्होंने अपना छोटापन साबित किया, तिरंगा बड़ा बना रहा, उसकी शान बनी रही।
इसी तर्क से सिर्फ़ तिरंगा फहरा देने से उसकी शान नहीं है। 20 करोड़ घरों में तिरंगा फहरा दें या 100 करोड़ हाथों में तिरंगा थमा दें, तिरंगा तभी बचेगा जब उसके मूल्य बचेंगे। इस देश में जब पंद्रह अगस्त की बरसात या छब्बीस जनवरी की ठिठुरन के बीच छोटे-छोटे गरीब बच्चे चौराहों पर तिरंगा बेचते नज़र आते हैं तो दरअसल वह देशभक्ति का प्रदर्शन नहीं कर रहे होते, कुछ दूसरे लोग होते हैं जो उनकी मार्फ़त देशभक्ति के बाज़ार में अपना माल उतार कर बेच रहे होते हैं। इन नन्हे हाथों से बिकता हुआ तिरंगा कुछ सिकुड़ा सा, कुछ छोटा सा हो जाता है। यही तिरंगा तब गर्व से लहराता है जब वह किसी बडे मक़सद, किसी बड़ी उपलब्धि के दौरान लहराया जाता है। खेल के मैदानों पर, आंदोलनों के दौरान हाथों में लहराता तिरंगा हम सबका सीना चौड़ा कर देता है, हम सबकी आंख कुछ नम कर देता है।
लेकिन धीरे-धीरे इस तिरंगे को जबरन भगवे के साथ जोड़ा जा रहा है। उसे सिर्फ़ राष्ट्रवाद का नहीं, धार्मिकता का प्रतीक भी बना दिया गया है। पिछले कुछ वर्षों से निकलने वाली कांवड़ यात्राओं को देखिए तो उसमें बाक़ी झंडों के साथ-साथ तिरंगा भी दिखेगा। यह दरअसल भारतीय राष्ट्र-राज्य के पीछे छुपे हिंदू राज्य का खेल है जो चाहता है कि पहले तिरंगे की पहचान को खुद से जोड़ा जाए और फिर उसे अपने रंग में बदला जाए।
दूसरी बात यह कि कोई भी प्रतीक हो, जब आप उसे थोपते हैं तो वह डरावना और बोझिल हो उठता है। इमरजेंसी के दौरान सिनेमाघरों में जन-गण-मन बजवाने से लोगों में कुछ ज़्यादा देशभक्ति नहीं आ गई। इसी तरह हाल के दिनों में फिर एक सुप्रीम आदेश से यह सिलसिला चल पड़ा था जिसे सौभाग्य से बदला गया। तो यह ज़रूरी है कि लोग प्रतीकों को अपनी इच्छा से अपनाएं, उसे अपने मन से समारोह में बदलें। इस देश में होली-दिवाली पर किसी सरकारी आदेश की ज़रूरत नहीं प़डती, सब रंग खेलने-दीप जलाने निकल आते हैं, तमाम सिकुड़न के बावजूद ईद का मौक़ा एक भीनी सी खुशबू बिखेर जाता है और क्रिसमस पर रोशनी कुछ बढ़ जाती है- इन दिनों तो सांता क्लाज़ जैसे एक नया देवदूत बन गया है जो हिंदुस्तानी बच्चों की नींद में आधी रात के बाद उतरने लगा है।
इसलिए सरकारी आदेश से झंडा फहराने में मज़ा नहीं है। सरकार बस आग्रह करे कि लोग ऐसा करें तो अच्छा लगेगा, लेकिन अगर कोई किसी भी वजह से, तिरंगे से अपनी शिकायत से भी, ऐसा न करना चाहे तो उसे यह अधिकार देना होगा। आख़िर लोग हैं, प्रतीक हैं और देश हैं तो उनकी शिकायतें भी हैं। देश को घर जैसा होना चाहिए, तिरंगे को एक बहुत प्यारे प्रतीक की तरह। उसे सरकार के आदेश से नहीं, जनता की इच्छा से फहराया जाना चाहिए। इसमें शक नहीं कि कई तरह की टूटनों के बावजूद तिरंगा झंडा वह प्रतीक बना हुआ है जो हमारी आंखों में चमक भरता है, हमारी रगों का रक्त प्रवाह तेज़ करता है और हमें बेजान पुतलों की जगह जीते-जागते, उत्साह से भरे नागरिकों में बदलता है। इसकी गरिमा बनी रहे इसलिए जरूरी है कि इसे फहराने का कोई रिकॉर्ड बनाने के उत्साह से भी बचा जाए।