शांति-विपस्सना
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बुद्ध मानते थे कि मन के उथल – पुथल का शरीर पर प्रभाव पड़ता है। वह मन को दुरुस्त करने की एक विधि बताते हैं। यही विपस्सना है। मन में ही विकार उठते है, जैसे क्रोध या अन्य बुरे भाव। क्रोध एक उग्र विकार है, अतएव इसे ही उदाहरण के रूप में लें। क्रोध उभरने से साँस अनियमित हो जाती है और इस अनियमन से शरीर की जीव- रासायनिक क्रिया में अस्वाभाविक हलचल मच जाती है। मुहावरे में हम इसे खून खौलना कह सकते है। शरीर की यह अस्वाभाविक क्रिया हमारा चित्त और स्वास्थ्य दोनों अनियमित अथवा ख़राब करती है। जीवन में यह लगातार होता रहे तो हमारा शरीर विनाश की ओर बढ़ता है।
बुद्ध सांस पर पहरेदारी की बात करते हैं। इसे आना- पान- सति कहा जाता है। जब हम साँसों की विसंगति को ठीक करते हैं, उसे लय में लाते हैं, तब हमें शरीर के अन्य हिस्सों में आये विकारों को देखने में सुविधा होती है। यही विपस्सना है। पश्य अर्थात देखना , विपश्य अर्थात विशिष्ट रूप से देखना। अपने विकारो को देख लेने भर से उसका अवलम्ब – यानि आधार ध्वस्त हो जाता है। इसके साथ विकार भी समाप्त होने लगते है , क्रोध शमित होने लगता है।
आना- पान सति और विपस्सना पहला और दूसरा पायदान है। यह एक विज्ञान है। इसके अभ्यास से व्यक्ति विकार मुक्त होकर सद्चित युक्त होता है। ऐसे लोगो से बना समाज सच्चे अर्थों में धार्मिक बनता है – तन- मन से विकार मुक्त स्वस्थ समाज।
योग विपस्सना का उलट है , विपरीत है। यह स्वस्थ शरीर से स्वस्थ मन की ओर बढ़ता है। बुद्ध स्वस्थ मन से स्वस्थ शरीर की ओर बढ़ते हैं। योग की मान्यता है कि जब शरीर स्वस्थ होगा, तब मन भी स्वस्थ होगा। ऐसे मन के बूते ही मोक्ष की प्राप्ति संभव है। उनका आधार शरीर है। विपस्सना की मान्यता है कि जबतक मन स्थिर नहीं होगा, स्वस्थ नहीं होगा, तबतक शरीर भी स्वस्थ नहीं होगा। आप कह सकते हैं कि विपस्सना मन का योग है। मन स्वस्थ होते ही शरीर भी स्वस्थ होगा। वैज्ञानिक विधि कौन है यह आप तय करेंगे।
इस विपस्सना के लिए बस दीर्घ मौन की जरुरत है। इस योग दिवस पर लोग विपस्सना की चर्चा भी कर सकें, तो मै इसे एक अच्छी शुरुआत मानूंगा।