जब तक जिया वो.. मूछों पे ताव था, गुलाम देश में वह एकलौता आज़ाद था, जाती व्यस्था के विरोधी थे, इसलिए उन्होंने कभी अपने आप को जाति से सम्बोधित नहीं किया, उनके नजर में कोई भी उच्च और नीच नहीं था, वह समानता के उपासक थे…23/07/2021 को शहीद चन्द्रशेखर आजाद की जन्म जयंती है…उन्हें आकाश भर नमन पहुँचे…आजादी के लिये चलाये गये असहयोग आंदोलन की लहर में पूरा देश बह गया था। काशी में पढ़ रहे एक 14 वर्षीय छात्र ने भी इसमें अपना योगदान दिया…!!
शहीद चन्द्रशेखर आजाद रामप्रसाद बिस्मिल के टीम में थे रामप्रसाद बिस्मिल के अगुआई में अशफ़ाक़ुल्ला खान, शचीन्द्र बख्शी, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, चंद्रशेखर, मन्मथनाथ गुप्त, केशव चक्रवर्ती, मुरारीलाल, मुकुन्दीलाल और बनवारीलाल शहीद चन्द्रशेखर आजाद थे
चन्द्रशेखर नामक इस किशोर को धरना देने के आरोप में गिरफ्तार कर पारसी मजिस्ट्रेट मि. खरेघाट के अदालत में पेश किया गया, जो बहुत कड़ी सजाएँ देने के लिए कुख्यात थे। उन्होंने इस किशोर से उसकी व्यक्तिगत जानकारियों के बारे में पूछना शुरू किया, तो उसने अपना नाम ‘आज़ाद’, पिता का नाम ‘स्वाधीन’ और घर का पता ‘जेलखाना’ बताया..!! मजिस्ट्रेट मि. खरेघाट इन उत्तरों से चिढ़ गए और उन्होंने चन्द्रशेखर को पन्द्रह बेंतों की सज़ा सुना दी।
जल्लाद ने अपनी पूरी शक्ति के साथ बालक चन्द्रशेखर की निर्वसन देह पर बेंतों के प्रहार किए। प्रत्येक बेंत के साथ कुछ खाल उधड़कर बाहर आ जाती थी। पीड़ा को सहन कर वह बालक हर बेंत के साथ ‘भारत माता की जय’ बोलता जाता था….. इस पहली अग्नि परीक्षा में सम्मान उत्तीर्ण होने के फलस्वरूप बालक चन्द्रशेखर का बनारस में नागरिक अभिनन्दन किया गया। अब वह चन्द्रशेखर आज़ाद कहलाने लगा और इस आज़ाद शब्द की सार्थकता को उस बालक से बेहतर शायद ही कभी किसी ने निभाया हो…!!
चंद्रशेखर आज़ाद का जन्म झाबुआ जिले के एक आदिवासी ग्राम भाबरा (अब चन्द्र्शेखर आजाद नगर) में 23 जुलाई 1906, आज ही के दिन हुआ था। उनके पिता का नाम सीताराम तिवारी एवं माता का नाम जगदानी देवी था। उनके पिता ईमानदार, स्वाभिमानी, साहसी और वचन के पक्के थे। यही गुण चंद्रशेखर को अपने पिता से विरासत में मिले थे…!!
गांधी जी द्वारा मनमर्ज़ी से असहयोग आंदोलन वापस लेने पर बहुत से युवाओं की तरह शहीद चन्द्रशेखर आजाद को भी धक्का
गांधी जी द्वारा मनमर्ज़ी से असहयोग आंदोलन वापस लेने पर बहुत से युवाओं की तरह शहीद चन्द्रशेखर आजाद को भी धक्का लगा। असहयोग की लड़ाई से मोहभंग हुआ तो भीतर की छटपटाहट उस बालक को क्रांतिकारी संग्राम की ओर खींच ले गयी। काशी क्रांतिकारियों का केंद्र था ही। वहां उसे क्रान्ति पथ के पथिक मन्मथनाथ गुप्त मिले और वह निर्भीक होकर उनके साथ चल पड़ा। फिर तो पीछे मुड़कर नहीं देखा उसने कभी और वो बन गया क्रांतिकारियों का कमांडर इन चीफ चंद्रशेखर आज़ाद, एक नाम जो वीरता का पर्याय बन गया…!!
असहयोग के समय छोड़े गए हथियार क्रांतिकारियों ने फिर से उठा लिए। क्रांतिकारी दल के नए नेता के रूप में शाहजहाँपुर के पंडित रामप्रसाद बिस्मिल सामने आये। उन्होंने पार्टी चलाने के लिए कुछ धनी और देशद्रोही व्यक्तियों के घरों में डकैतियाँ डालीं, जिनमें चंद्रशेखर आज़ाद भी साथ थे। पर पार्टी नेतृत्व जल्द ही ऐसे एक्शनों से ऊब गया। उसे लगा कि यह अपने ही देशवासियों पर ज्यादती है और क्यों न सीधे सरकार पर हमला किया जाये…!!
योजना बनी और 9 अगस्त 1925 को लखनऊ के निकट काकोरी रेलवे स्टेशन से थोड़ी दूर पर एक सवारी गाडी को रोककर सरकारी खजाने की लूट की गयी। इस काम में रामप्रसाद बिस्मिल की अगुआई में अशफ़ाक़ुल्ला खान, शचीन्द्र बख्शी, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, चंद्रशेखर आज़ाद, मन्मथनाथ गुप्त, केशव चक्रवर्ती, मुरारीलाल, मुकुन्दीलाल और बनवारीलाल ने हिस्सेदारी की।
योजना तो पूर्णतः सफल रही पर बाद में कुछ सुराग मिलने पर जब अंग्रेजी सरकार ने धरपकड़ शुरू की तो दल के नेता बिस्मिल और लगभग 40 क्रांतिकारी युवक सरकार की गिरफ्त में आ गए। पकडे नहीं जा सके तो चंद्रशेखर आज़ाद…!!काकोरी का मुकदमा लखनऊ की अदालत में 18 महीने तक चला, जिसमें बिस्मिल, अशफ़ाक़ुल्ला खान, ठाकुर रोशन सिंह और राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को फाँसी की सजाएं दी गयीं,
जबकि कुछ को काले पानी की सजा और अन्य को कारावास का दंड मिला। इस घटना के बाद संगठन बिखर गया और क्रांति की मशाल बुझती सी लगी, पर एक सूरमा अभी भी मुक्त था… आज़ाद फरार हो गए, पर चुप नहीं बैठे..!! 19 दिसंबर 1927 को काकोरी काण्ड में हुयी फाँसियों के बाद दल के नेतृत्व का भार उनके कन्धों पर आ गया। आज़ाद ने खिसककर झाँसी में अपना अड्डा जमा लिया। जब झाँसी में पुलिस की हलचल बढ़ने लगी तो चन्द्रशेखर आज़ाद ओरछा राज्य में खिसक गए और सातार नदी के किनारे एक कुटिया बनाकर ब्रह्मचारी के रूप में रहने लगे…..
उन्होंने संगठन के बिखरे हुए सूत्रों को जोड़ा और गुप्त रहकर तेजी से पार्टी संचालन किया। सौभाग्य से इसमें उन्हें भगत सिंह के बौद्धिक नेतृत्व का जबरदस्त सहयोग मिला। अब ‘हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ’ के नाम में ‘समाजवादी’ शब्द जोड़कर नई योजनाएं तैयार की जाने लगीं। आज़ाद पार्टी के सेनापति बनाये गए…!!स्वतंत्रता से प्रजातंत्र और फिर समाजवादी लक्ष्य तक की क्रांतिकारियों की इस संघर्ष यात्रा पर गर्व ही किया जा सकता है,
जबकि दूसरी ओर आज़ादी के लिए आन्दोलनरत कांग्रेस ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ के अपने प्रस्ताव तक भी नहीं पहुँच पायी थी…!!साइमन कमीशन का झाँसा आया तो देश भर में उसका तीव्र विरोध हुआ। हर कहीं ‘साइमन गो बैक’ के नारे और और काले झंडे। लाला लाजपतराय पर ऐसे ही एक जुलूस में लाठियाँ बरसाई गयीं जिससे वे बुरी तरह घायल हो गए और उनकी मृत्यु हो गयी। क्रांतिकारियों को लगा कि यह देश का अपमान है
और इसका बदला लिया जाना चाहिए। चंद्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह, राजगुरु और कुछ अन्य क्रांतिकारियों ने मिलकर दिन-दहाड़े पुलिस अफसर साण्डर्स को मारकर यह साबित कर दिया कि देश के नौजवानों का खून अभी ठंडा नहीं हुआ है। उन्होंने देश की जनता और हुकूमत को यह भी बताया कि इस तरह रक्त बहाने की अपनी विवशता पर वे दुखी हैं पर क्रान्ति के रास्ते में कुछ हिंसा अनिवार्य है।
अत्याचारी सरकार को सावधान करते हुए उन्होंने अपनी घोषणा के नोटिस भी जगह जगह चिपकाए और वितरित किये..!!1928 का वर्ष गहरे असंतोष का था। सब ओर हलचल थी। केंद्रीय असेम्बली में सरकार दो अत्यधिक दमनकारी कानून पेश करने वाली थी। इस माहौल में क्रांतिकारी दल ने इनका विरोध करने का निर्णय किया। तय हुआ कि जिस समय वह जनविरोधी कानून केंद्रीय असेम्बली में प्रस्तुत हों, ठीक उसी समय बमों का विस्फोट करके बहरों के कान खोले जाएँ…!!
आज़ाद का विचार था कि ऐसा करने के बाद क्रांतिकारी वहाँ से निकल जाएँ लेकिन बहुमत से फैसला हुआ कि भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त बम फेंकने के पश्चात अपनी पार्टी की नीतियों, सिद्धांतों, लक्ष्यों और घोषणाओं के पर्चे फेंककर गिरफ्तारी देंगे तथा मुकदमे के समय अदालत को मंच के रूप में इस्तेमाल करके जनता और दुनिया के बीच अपना प्रचार करेंगे। ऐसा ही हुआ। भगतसिंह और दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को बहरों के कान खोलने के लिए बम का धड़ाका किया और जेल चले गए…..!!
भगतसिंह, दत्त और बाद में गिरफ्तार अन्य क्रांतिकारियों पर ‘लाहौर षड़यंत्र केस’ चला, जिसमें भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी तथा दूसरों को कालापानी की सजाएं सुनाई गयीं। इससे पहले ही आज़ाद ने भगतसिंह को जेल से छुड़ाने की योजना पर गंभीरता से कार्य किया। भगवतीचरण इसी तैयारी में बम परीक्षण करते हुए रावी नदी के तट पर शहीद हो गए। फिर भी आज़ाद ने लक्ष्य को नहीं छोड़ा, पर भगतसिंह बाहर आने के लिए तैयार ही नहीं हुए…!!
आज़ाद निरंतर फरार रहकर निर्भीकता से पार्टी का कार्य कर रहे थे। वे अब ब्रिटिश सत्ता के लिए जबरदस्त चुनौती बन चुके थे। पार्टी के कुछ एक सदस्यों के विश्वासघात के चलते यह बहादुर सेनानायक आखिरकार 27 फरवरी 1931 को इलाहबाद के अल्फ्रेड पार्क में ब्रिटिश पुलिस के द्वारा चारों तरफ से घेर लिया गया….. अपनी एक मामूली पिस्तौल और चंद कारतूसों के बल पर उन्होंने जिस तरह शक्तिशाली माने जाने वाले अंग्रेजी साम्राज्यवाद को जबरदस्त टक्कर दी, वह संसार के क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास की अमिट गाथा है..!!
उन्होंने संकल्प किया था कि वे न कभी पकड़े जाएंगे और न ब्रिटिश सरकार उन्हें फांसी दे सकेगी। इसी संकल्प को पूरा करने के लिए उन्होंने इसी पार्क में स्वयं को गोली मारकर मातृभूमि के लिए प्राणों की आहुति दे दी।जीवन पुष्प चढ़ा चरणों पर, माँगे मातृभूमि से वर तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहे न रहे…..