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जहां लिया गया संकल्प वहीं जनता ने नकारा
कांग्रेस पार्टी की तरफ से रायपुर अधिवेशन में जातिगत गणना के समर्थन में प्रस्ताव पारित किया गया था. जिसके बाद से पार्टी की तरफ से राज्यों के लिए बनाए गए चुनावी घोषणा पत्र में भी इसे जगह दी गयी थी. नवंबर महीने में हुए इन तीन हिंदी राज्यों के चुनाव में इसे जोरदार ढंग से उठाया गया. राहुल गांधी ने लगभग अपने सभी चुनावी सभाओं में इस मुद्दे को उठाया लेकिन जनता ने उनकी अपील को खारिज कर दिया.
चुनाव के दौरान ही कांग्रेस समर्थित सरकार ने बिहार में बढ़ाया था जातिगत आरक्षण
कांग्रेस द्वारा उठाए गए जातिगत जनगणना के मुद्दे को बिहार की नीतीश सरकार के द्वारा भी समर्थन मिला था. जब इन राज्यों में चुनाव हो रहे थे उसी दौरान बिहार की नीतीश सरकार ने राज्य विधानसभा में जातिगत सर्वे के डेटा को सार्वजनिक किया था. तुरंत बाद बिहार विधानसभा में आरक्षण के दायरे को भी बढ़ा दिया गया था. हालांकि इस चुनाव में कांग्रेस पार्टी इंडिया गठबंधन से अलग हटकर चुनाव लड़ रही थी लेकिन बिहार सरकार के फैसले में कांग्रेस पार्टी की भी हिस्सेदारी रही थी. कांग्रेस के नेताओं ने बिहार के तर्ज पर अन्य राज्यों में भी जातिगत गणना करवाने की वकालत करते हुए जनता से वोट मांगा था.
कांग्रेस ने ओबीसी सीएम का उठाया था मुद्दा
कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी की तरफ से लगातार ‘जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी’ की बात चुनावी मंचों से कही जा रही थी. कांग्रेस ने दावा किया था कि हमारे 4 में से 3 मुख्यमंत्री ओबीसी समाज से हैं. साथ ही बीजेपी नेतृत्व पर ओबीसी समाज की उपेक्षा का आरोप पार्टी की तरफ से उठाया गया था.
कांग्रेस को क्यों नहीं मिला जनता का साथ?
ओबीसी प्रतिनिधित्व और जातिगत गणना के मुद्दे पर कांग्रेस पार्टी को इन विधानसभा चुनावों में निराशा हाथ लगी. चुनाव परिणाम के विस्तृत रिपोर्ट के बाद ही इसकी अधिक चर्चा संभव है. लेकिन जिस आंधी की उम्मीद पार्टी की तरफ से की गयी थी. वो देखने के लिए नहीं मिली. कांग्रेस के विरुद्ध यह बात बीजेपी की तरफ से कही गयी कि कांग्रेस पार्टी ने 2011 में केंद्र की सत्ता में रहते हुए जातिगत आंकड़ों को सार्वजनिक नहीं किया था. कांग्रेस का ओबीसी प्रेम महज चुनावी स्टंट है.
मंडल आंदोलन के दौरान कांग्रेस का अलग रहा था स्टैंड
जातिगत प्रतिनिधित्व की राजनीति के लिए सबसे बड़ा माइलस्टोन मंडल आयोग की रिपोर्ट को माना जाता रहा है. कांग्रेस पार्टी पर लगातार यह आरोप लगते रहे हैं कि कांग्रेस सरकार की तरफ से 80 के दशक में मंडल आयोग की रिपोर्ट को नजरअंदाज किया गया. साथ ही जब कांग्रेस पार्टी से अलग होकर प्रधानमंत्री बने वीपी सिंह ने मंडल आयोग के प्रस्तावों को लागू करना चाहा तो कांग्रेस की तरफ से इसका विरोध किया गया था.
कांग्रेस संगठन में लंबे समय तक जातिगत प्रतिनिधित्व की कमी
हिंदी राज्यों में 90 के दशक में मंडल आंदोलन के बाद कांग्रेस की पकड़ लगातार कमजोर होती चली गयी. हालांकि लंबे समय तक कांग्रेस पार्टी की तरफ से इस तरफ ध्यान नहीं दिया गया और पार्टी मंडल और कमंडल की राजनीति के बीच अपने लिए जगह बनाने का प्रयास करती रही. 2021 के बाद पार्टी ने सामाजिक न्याय और जातिगत गणना जैसे मुद्दों पर ध्यान देने का प्रयास किया. राजनीति में 2-3 साल का समय किसी मुद्दे को स्थापित करने के लिए बहुत अधिक समय नहीं माना जा सकता है. कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं के द्वारा इस मुद्दे को उठाए जाने के बाद भी उसे निचले स्तर तक पहुंचाने में पार्टी को सफलता नहीं मिली. आने वाले चुनावों में भी कांग्रेस को इस चुनौती से निपटने में परेशानी हो सकती है.
मुद्दे उठाए गए लेकिन सोशल इंजीनियरिंग की जमीन नहीं बनी
जातिगत गणना या सामाजिक न्याय की राजनीति जिन राज्यों में 2000 के बाद सफल हुई है. उसमें सोशल इंजीनियरिंग का एक अहम योगदान रहा है. बिहार में नीतीश कुमार और उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी ने इस मॉडल को अपना कर कई कम संख्या वाली जातियों को अपने साथ जोड़कर एक मजबूत सामाजिक आधार बनाया. कांग्रेस पार्टी की तरफ से इन तीन राज्यों में इस तरह के कोई विशेष प्रयास नहीं हुए. कांग्रेस की तरफ से आंकड़ों के आधार पर पूरे ओबीसी समुदाय को साधने का प्रयास किया गया जिसमें उन्हें सफलता नहीं मिली.
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