By:Abhishek
(चंद्रभूषण जी की पोस्ट के संदर्भ में)
भारत में कभी, कोई भी, निर्णायक रूप से नहीं कहेगा कि ‘फासीवाद आ गया’।
जो ऐसा कह रहा है, उसके रिकॉर्ड को खंगालिए। सन बानबे से वो ऐसा ही कहता हुआ मिलेगा। ऐसे बौद्धिक हर अंधे मोड़ पर ‘फासीवाद आ गया’ चिल्लाते हुए मिलेंगे। इनके चक्कर में ‘भेड़िया आया’ वाली दुर्गति हुई है। अब इनके चिल्लाने पर कोई विश्वास नहीं करता। ये खुद इतना आदी हो चुके हैं फासीवाद चिल्लाते-चिल्लाते कि मन ही मन उसे सामान्य गति मान के आरामतलब हो चुके हैं।
जो बिना लागलपेट ‘फासीवाद आ गया’ नहीं कह पा रहे, उनकी दिक्कत अलग है। ऐसे लोग इस बात से डरते हैं कि अगर बोल दिए और पलट के सामने वाले ने पूछ दिया कि ‘अब क्या करें’, तो जवाब क्या देंगे। इज्जत चली जाएगी, सारी बौद्धिक हनक ध्वस्त हो जाएगी। इसलिए अलग-अलग शब्दावली में फंसाए रखो, जैसे भारतीय फासीवाद, इत्यादि। ऐसे बौद्धिक अपनी नकली प्रस्थापना में फंस के खुद ही दम तोड़ देते हैं। जैसे वो चीनी चित्रकार, जो ड्रैगन की तस्वीर बनाता था लेकिन एक दिन ड्रैगन ने दरवाजे की घंटी बजा दी तो उसे देखते ही कलाकार के प्राण पखेरू उड़ गए।
चंद्रभूषण जी का सवाल गलत है। दोनों तरफ से। जो कह रहा है और जो नहीं कह रहा कि ‘फासीवाद आ गया’, दोनों कमोबेश बराबर आलसी, आत्मसंतुष्ट और आत्मप्रवंचक हैं। ये लोग मन ही मन जनता से डरते हैं। अकेले में जनता को गरियाते हैं। जनता में निकलते नहीं या अपनी ही बनाई जनता के बीच जाते होंगे।
सही सवाल ये है कि फासीवाद या whatever जो भी है भारत में, और कोई इसे कुछ भी नाम दे या न दे, पर उसके दीर्घकालीन प्रभावों और तात्कालिक निहितार्थों से निपटने की हमारी तैयारी क्या है! अगर है, तो बात की जाए। नहीं है, तो जो तैयारी में लगे हैं उनसे मिला जाए, बैठा जाए। कम से कम प्रॉसेस में तो जुड़ा जाए। आने वाली सिचुएशन शुतुरमुर्ग बन के मौजूदा सिचुएशन से मुंह फेरने से टलेगी नहीं।